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कोई नहीं था बाँहों में (KOI NAHI THA BANHON MEN)......
तड़पते थे जब हम बहारो में,
जलते थे जब हम फुहारो में,
चुभती थी जब कांटे राहों में,
तब कोई नहीं था बाँहों में।
सिसकाती थी जब रातें अंधियारों में
सताते थे दिन जब उजियारों में
लम्हें-इंतजार गुजरते थे जब माहों में
तब कोई नहीं था बाँहों में ।
था जिक्र किसी का हर बातों में
था फिक्र किसी का हर दिन-रातों में
था अक्स किसी का निगाहों में
तब कोई नहीं था बाँहों में ।
बंध गया था खुद के उलझाये तारों में
जी रहा था अपने ही प्यार के प्रहारों में
शामिल कर लिया था खुद को गमगुसारो में
क्योंकि कोई नहीं था बाँहों में।
ढूँढ रहा था हमदम हमराहों में
ढूँढ रहा था बेगुनाही अपने गुनाहों में
ढूँढ रहा था जिंदगी मौत की पनाहों में
क्योंकि तब कोई नहीं था बाँहों में ।
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क्या बात क्या बात क्या बात