थी वो नन्‍हीं गुड़ि‍या



  थी  वो  नन्‍हीं  कलियाँ
  था शोभित उससे बगिया
  सबकी  प्‍यारी वो गुडि़या
  दूलारी सबकी वो बिटिया।

  पहले खिलखिलाती थी वो,
         भर दिन उजियारों में।
  पहले चहचहाती थी वो,
        हर शाम अंधियारो में।
  खूब झूला झुलती वो,
         अमुआ के डालो में।
  खूब फुदका करती वो
       अमरूद के बगानों में।

  अब क्‍यों गुडि़या कोने में बैठी है
              दूर खुशी के पनाहों से।
  अब क्‍यों बिटिया दीवारों से ठिठकी है,
            अंजान हर धुपछाँहों से।
  अब क्‍यों गुमसुम सी रहती,
  सुबह शाम बस माँ की बांहों में।
  अब क्‍यों न कुछ कहती,
              घर देहरी चौराहों में।।

  अब क्‍यों निकल न पाती दरवाजों से
  अब क्‍यों  डर  जाती हर आवाजों से
  मॉं-बाप ने पाला जिसे  बड़े नाजों से
  क्‍यों डरने  लगी हर जाने-अंजानों से

  पहले  तो  मिल  के सबसे  हँसती  थी
  पहले तो देख सबको खूब चहकती थी
  सबसे  मिल  के  खूब  बातें करती  थी
  अपने मुस्‍कानों से सबका मन हरती थी

  अब क्‍यों है वो सहमी सी।
  अब क्‍यों है वो कोने  में 
             दुबकी सी।
  क्‍यों  वो  कुछ  न कहती  है।
  क्‍यों नजरे ऊपर न करती है।
  क्‍यों हाथों के घेरे से,
  और पैरों के फंदे  से
  अपना सिर नहीं निकालती है।

  क्‍यों  अब हर आहट से  डरती
  क्‍यों  अब आंचल  से न  हटती
  क्‍यों दिन भर वो सहमा करती
  क्‍यों रातों में वो सिसका करती

  शायद  इसलिए तो  वो नहीं डरी
  शायद इसलिए तो वो नहीं सहमी
  जो हुआ उस दिन उसके साथ
  रखा एक शख्‍स ने उसपे हाथ

  बनके अपना कोई घर  आया था
  गुड़ि‍या-खिलौने भी संग लाया था
  पर वो  तो  शैतान  का साया  था
  उसपे तो  वहशीपन ही छाया था

  मन था  उसका  मैला
  देख बच्‍ची को अकेला
  रचा   छल  का  खेला
  पहन अपनेपन  का चोला
  खेल हवस का उसने खेला

  कहती थी वो उसको अंकल
  वो रिश्‍ता उसने दिया कुचल
  इंसानियत  का किया  छल
  वो तो था  ही  इंसानी खल

  नजर इधर-उधर घुमाया
  हाथ उसी तरफ  बढाया
  भयावह स्‍पर्श  का एहसास कराया
  बच्‍ची का रोम रोम काँप सा आया
  शरीर पर न जाने कितना 
                           वो दाग दिया
  मन से उसके न निकले आजीवन, 
                           वो घाव दिया

  उम्र का  था नहीं  विचार
  रिश्‍तों को भी करके खार
  मानवता  करके शर्मशार
  किया   उसने   दुराचार

  इस छुवन से हुई  वो स्‍तब्‍ध
  क्‍या यही था उसका प्रारब्‍ध
  खूब चीखी थी वो
  रोई भी खूब  थी
  शोर  भी  उसने  खूब  मचाया  था
  हम बहरे को कहॉं सुनना आया था
  हम अंधे कहॉं कुछ देख पाये थे
  शायद उसी अंधेपन को करने दूर,
  आज हम कैंडिल मार्च पर आये थे।


Comments

Unknown said…
बहुत अच्छा
कैंडल मार्च करने वालो को थोडा और तमाचा भी मारना चाहिए था।