छठ पूजा और पर्यावरण (chhath puja and environment)


                🌞छठ पूजा और पर्यावरण🌞                                   
पर्यावरण का हमारे जिंदगी में कितना महत्व है वो किसी से छुपा नही है। ये अलग बात है कि हम उसे याद नही करना चाहते। पर जब भी हम अपनी  सभ्यता और संस्कृति को याद करते हैं तो पर्यावरण को पूजने के कई साक्ष्य जहन में आ ही जाते हैं। 

अब जबकि अभी छठ पूजा की गूँज चहुं ओर है तो इस समय पर्यावरण के बारे में बात न कि जाए तो कुछ अधूरा लगता है। क्योंकि मेरे हिसाब से छठ और पर्यावरण का  अन्योन्याश्रय संबंध हो या यूं कहें कि छठ पूजा के माध्यम से पर्यावण को पूजना ही मुख्य उद्देश्य है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

अब चूंकि इस आलेख को मेरे कुछ गैर बिहारी मित्र भी पढ़ेंगे तो पहले छठ पूजा का संक्षिप्त परिचय देता चलूं। छठ पूजा। यह चार दिवसीय अनुष्ठान है, जिसके पहले दिन नहाय खाय, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन सायंकालीन अर्ध्य और अंतिम दिन प्रातः कालीन अर्ध्य होता है।

अब इस पूरे अनुष्ठान का जो विधान है और जो प्रसाद है, उसमे प्रकृति से निकटता खुद प खुद हो जाता है। नहाय खाय के दिन ऐसी परंपरा है कि गंगा में स्नान करके या किसी नदी में स्नान कर फिर भात, दाल और लौकी की सब्जी व्रती खुद बनाती हैं और फिर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करती हैं और बाकी लोग भी उसे ही खाते हैं। दूसरे दिन नहाय खाय के दिन दिन भर के निर्जला उपवास के बाद शाम को व्रती गुड़ से तैयार चावल का खीर और गेंहूँ के आटा की रोटी शाम को भगवान को अर्पित करती हैं। इसी खीर और रोटी को प्रसाद स्वरूप व्रती ग्रहण करती हैं और समस्त सगे संबधी भी उसे ही ग्रहण करते हैं। इसके बाद शुरू हो जाता है व्रती का 36 घंटे का उपवास, जिसके पहले दिन संध्याकालीन अर्ध्य और  और अगले दिन सुबह का अर्ध्य दिया जाता है।

सुबह और शाम के लिए जो अर्ध्य का प्रसाद बनता है, वो घर मे ही तैयार किये जाते हैं, जिज़मे गुड़ और गेहूं के आटे से बना हुआ ठेकुआ सबसे महत्वपूर्ण है। इसके अलावे गागर नींबू, नारियल, केला, हल्दी और अदरक पत्ता सहित, शकरकंद, सुथनी, निम्बू, ईंख, जिमीकंद या ओल एवं अन्य प्रकृति प्रदत्त सामग्री श्रद्धा और सामर्थ्य अनुसार जिज़मे मौसमी फल, सिंघाड़ा, मूली इत्यादि शामिल होते हैं। इन सब अर्ध्य सामग्री के साथ नदी या तालाब में खरे हो कर भगवान भास्कर को सुबह और शाम का अर्ध्य दिया जाता है। 

अर्ध्य देने के लिए जो नदी, तालाब या पोखर में खरे होने की जो परंपरा है, वो जल का हमारे जीवन मे महत्ता को ही दर्शाता है। छठ पूजा के जरिये ही हम इन स्रोतों को भी पूजते हैं और साफ रखने का भी प्रयास किया जाता है, जिसकी आधुनिक युग में नितांत आवश्यकता है। परंतु धीरे धीरे जो कृत्रिम छठ पूजा जलाशयों का प्रचलन बढ़ रहा वो कहीं न कहीं वर्तमान में नदियों के हालात को भी बखूबी रेखांकित करता है।

छठ पूजा का आधार ही है सूर्य उपासना, सनातनी परम्परा में पेड़, नदी सूर्य इत्यादि को पूजने की प्रथा रही है, तो छठ पूजा के माध्यम से ऊर्जा के सबसे बड़े स्रोत को पूजा जाता है, जिन्हें हम एकमात्र मूर्त भगवान भी कह सकते हैं। व्रती अविरल बहती धारा में खरे होकर अविरल प्रकाश के और ऊर्जा के स्रोत भगवान आदित्य की आराधना करती है। ये प्रकृति से हमारा रिश्ता ही है कि छठ पूजा के दौरान डूबते सूर्य को भी अर्ध्य दिया जाता है, जिसे संध्याकालीन अर्ध्य कहते हैं। डूबते सूर्य को अर्ध्य देने की परंपरा हमे कहीं और देखने को नहीं मिलती, सिवाय छठ के। डूबते सूर्य को अर्ध्य देना इस बात का परिचायक है कि सूर्य भले ही हमे न दिख रहा हो, पर वो हमें अपनी ऊर्जा हर समय प्रदान करते रहते हैं। 

सूर्य और जल स्रोत की प्रमुखता के अलावे जो अन्य प्रसाद की सामग्री प्रयोग में लाये जाते हैं वो सभी मौसमी फल और सब्जी होते हैं, जिन्हें भगवान को अर्पित किया जाता है और उन्हें इसे प्रदान करने के लिए धन्यवाद दिया जाता है, ये सब जो सामग्री है, उसके उतपत्ति में सूर्य प्रकाश और जल दोनो का महत्वपूर्ण यगदान है।
इसके अलावे अर्ध्य देने और प्रसाद रखने के लिए हो सामग्री उपयोग में लाया जाता है, वो भी पर्यावरण हितैषी ही होता है, जिसमें बांस से बने दउरा, सुपली और मिट्टी से बने बर्तन प्रयोग में लाये जाते हैं।

इस प्रकार छठ पूजा में प्रकृति को पूजने की एक अनोखी परंपरा है, जो आज के समय मे कितनी प्रासंगिक है ये बात प्रदूषण, बाढ़ वैश्विक तापन इत्यादि को देख के सहज ही लगाया जा सकता है। पर इसमें में भी एक जबरदस्ती का परंपरा जोड़ा गया है आतिशबाजी का, जो छठ पूजा के सिद्धांत के बिल्कुल ही विपरीत है। अगर इसपर विचार किया जाए तो, निःसंदेह छठ पूजा के द्वारा प्रकृति को महत्व देने का जो प्रचलन है वो निरंतर अपने उद्देश्य की ओर बढ़ता रहेगा।

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