धार्मिक समरसता और कव्वाली की एक शाम


अब इसे कव्वाली का शौक कहें या मुफ्त के कार्यक्रम का आकर्षण, मैं पहुंच गया दिल्ली सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रम "कव्वाली की दस्तक" में, जो कि सफदरजंग डेवलपमेंट एरिया में कैलाशपति नाथ मंदिर पार्क में आयोजित किया गया था।  वैसे जब मैंने इस कार्यक्रम की जानकारी अख़बार में देखी और मैं आयोजन स्थल पर पहुंच गया एवं कव्वाली का आनंद लेने लगा तब तक मेरे मन मे आयोजन स्थल, जो कि "कैलाशपति नाथ मंदिर" का पार्क था,  के बारे में कोई विशेष ख्याल नहीं आया। मैं मजे से कव्वाली सुनने में व्यस्त था वो भी सूफियाना अंदाज में जिसके आगाज में सामान्यतः कव्वाल अपने पीर, मौला को याद करते हैं, तभी मंदिर से शंख की आवाज आई, फिर घंटी की आवाज भी हमने सुनी क्योंकि वो आरती का वक़्त था। जब शंख, आरती और कव्वाली की आवाज एक साथ मैने सुना तब मेरे दिमाग मे उस कार्यक्रम स्थल जिसका नाम था कैलाशपति नाथ मंदिर मेरे मन मस्तिष्क में जीवंत हो उठा। मैं भारतीय होने के नाते गर्वित महसूस करने लगा उस पल को एक अलग ही अंदाज में जिया। शंख, आरती कव्वाली एक साथ हो रहा था और लोग उसका आनंद भी ले रहे थे। कहीं किसी के मन मे कोई विद्वेष का भाव नही था, कहीं किसी के मन मे कोई प्रश्न नहीं था कि आरती के साथ ये क्यों, मंदिर के बगल में कव्वाली क्यों। यही हमारी भारतीय संस्कृति है, यही हमारी परम्परा है, यही भारतीयता का दर्शन है जिसका अनुभव मैंने उस दिन किया। यही वो भारतीयता का भाव है जिसमें कव्वाली के दौरान निजामी बंधु फरमाते हैं
          
         ""कहते हैं जिसको श्याम वो आनंद कंद है,
            जग में फैली उसी के नाम की सुगंध है,
            लीला रचाने वाला वही कृष्ण चंद है
            36 राग रागिनियाँ जिसकी मुरली में बंद है
            मुझे तो उस मुरली वाले कि मुरली पसंद है""
तो सीना गर्व से फूल जाता है कि ऐसी समरसता भारत्वमे ही संभव है और फिर जब जब नजराना देने के क्रम में मंदिर की ओर से भी कव्वालों को नजराना भेंट किया जाता जाता है, तो उस पल जो खुशी उन कव्वालों के चेहरे पे थी उसका अनुभव वही कर सकते है, पर खुशनुमा, सद्भावना का महौल मुझे उस कव्वाली कार्यक्रम में नजर आया वो तो मेरे लिए जीवन भर की पूंजी हो गयी, मुझे अपने देश से और प्यार हो गया। पर एक बात समझ मे नही आती क्यों "वो लोग" इस समरसता को स्वीकार नही कर सकते और रात दिन इसे खंड खंड करने को प्रयासरत रहते हैं। 
            ऐसे ही कुछ वो लोग और उनके बहकावे में आ गए हम लोग के लिए मैं  यहां अपनी ही एक कविता के कुछ अंश के साथ आप लोगों को इस आशा के साथ छोड़ रहा हूँ कि हम वो लोग के बहकावे में कम से कम आएं--


क्‍यों फंस गया तू मंत्रजाल में
क्‍यों अटक गया तू मायाजाल में
छोड़ टोपी, तिलक, भाल को
फेंक चाकू, कटार और मशाल को
कर एक बार विचार तू
छिड़क प्‍यार का फुआर तू
नाम धर्म पर खिलवाड़ अब न सह
भाईचारा में दरार अब न सह
भाईचारा ही बनाती थी हमें सबल
क्‍यों उसे भूल बन रहे हम निर्बल
बना दिया क्‍यों विद्वेष का दलदल
पहुँच गये वहाँ मानवता का रसातल 
मंदिर-मस्जिद की दीवार एक कर
हिंदी-उर्दू की जबान एक कर
अल्‍लाह और राम एक कर
गीता और कुरान एक कर
आरती और अजान पर अब न लड़
पीपल और मजार पर अब न लड़
ईद की नमाज पर तू साथ दे
दिवाली के दिए को भी हाथ दे
होली के गुलाल को गले पर सजा
ईद के सेवईओं का भी ले मजा
नाम धर्म पर न दे अपने को सजा

Comments