कुछ कुरेद लें वक्त के दामन से,
गुलाबी न सही कुछ सुर्ख ही कर लें,
तेरी अहसास को, बिस्तर की
सिलवटों में ही ढूँढे,
सिलवटों में ही ढूँढे,
तेरी अक्स को गम के अंधेरे
में ही टटोलें।
क्यों शब में मैं शबा: ढूँढता रहा,
नआगाह था मैं था नाअशना
मखमली सुबह में ढूँढा,
तपती दोपहरी में खोजा,
शाम की गोद में भी न मिली,
शायद तुम शबबू ही थी, जो उस रात
लबों पे मुस्कान, ऑंखों में नमी
दरवाजे पर आहट, दिल में बेकसी,
तकियों में महक, बिस्तर में सिलवट
छोड़ चली गई,
चलों आज उन सिलवटों को ही सहला लें,
चलों आज फिर कुछ कुरेद लें....
पर उसने भी की बेवफाई,
बेमौसम पतझड़ से बेकद्री
का अहसास दिलाई।
मैं तो उस पल के अहसास से ही जी लेता,
उन लम्हों के अफसानों से ही जख्म सी लेता,
उस पल के खुशबू से ही सांसे भर लेता,
तेरी यादों की डोर से मन बहला लेता ,
पर, तूने उस पल को नख से ऐसे बॉंधा,
जैसे, उसका नफस ही मिटा डाला,
चलो आज उस डोर को ही ढूँढे,
चलो आज फिर गीत सुनाएं................
--प्रेम बन्धु
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